अकेला कहां
अस्तित्व संग हूँ
अपनी ही खुशबू में
स्वयं संलग्न हूँ
अब तक जो था सो था
जड़ों से था जुड़ा
हुई इक उम्र पूरी
धरा पे जा पड़ा
बिखरा हुआ बस जानो
घड़ी में जा उडूँ
प्रस्थान पूर्व उऋण हो
समष्टि से जुडूँ
इक काल खण्ड गुजरा
मुझ में सिमट गया
विस्तार प्राण मेरे
उद्भव में रम गया
खण्डित हो देह मेरी
अब सूख रहे प्राण
ले लो ये रंग बू सब
उपलब्ध हो निर्वाण
Facebook Comments