Meaning Behind Words

यह जरूरी नहीं की हम जो देखते हैं और समझ लेते हैं वो सच ही हो. सचाई हमेशा विज्ञानिक तरीकों से जानी जा सकती है. जिस चीज़ पे हम विश्वाश करते हैं और उसे सच मानने लगते है, हमारा फ़र्ज़ है की हम उस सच को अलग अलग तरीकों से वेरीफाई करें. जरूरी नहीं की दूर सड़क पे जो पानी नजर आ  रहा है वो पानी ही हो, वो नजर का धोखा भी हो सकता है. और ये भी जरूरी नहीं की हमेशा सच बोलने वाला इंसान आप से जो अभी कह रहा है वो सच ही हो.  केवल सत्यवादी इंसान के शब्दों पे विश्वाश कर लेना ठीक नहीं होगा. हमको अगर सत्य को जानना है तो उन् सत्य प्रकट करने वालें शब्दों की गहराई में जाना होगा. ऐसा हो सकता है की वो कहे गए वाक्य सच हों लेकिन उनका अर्थ कुछ और ही हो. हम एक उदाहरण ले कर समझते है.. सोचो की दो व्यक्ति फ़ोन पे इश्वर की बातें कर रहे हैं या वो भारतीय क्रिकेट प्लायेर्स की बातें कर रहे हैं, तो यह जरूरी नहीं है की जो बात होते हुए आप सुन रहे हो , वो इश्वर या क्रिकेट से जुडी हुई हो. शब्दों में और उनके अर्थ में हमेशा भिन्नता हो सकती है. अगर हम महाभारत काल में जाएं और द्रोनाचार्या जी के अंत के बारे में पड़ें तो हम पाएंगे के जब उन्होने अपने पुत्र अश्वथामा की वीरगति को प्राप्त होने की खबर धरमराज युधिस्ठिर से सुनी जो कभी असत्य नहीं बोलते थे तो वो दुःख के कारण समाधि में चले गए. लेकिन सत्य यह था की अश्वथामा नाम का हाथी मारा गया था और उनका बेटा जीवित था और आज तक जीवित है. इसलिए जरूरत है की जब जब भी हमे कोई बात कही जाए उसके प्रमाण जानना जरूरी है. और अगर लिखित में भी हमारे सामने कोई बात पेश की जाए तो उसमे लिखे गए शब्दों का मतलब जानना जरूरी है.

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