ओस से भरे जाड़ों में, आखिर क्यों मौन हूँ मैं
इन फूलों पत्तों और पहाड़ों में, खोजता हूँ कौन हूँ मैं
क्या रिश्ता है मेरा इनसे, कबसे जुड़ा हूँ इनसे
मिल जाना चाहता हूँ आज, कभी ना मिला था जिनसे
मेरे रग रग को जो छू रही, उस मिटटी में खो जाना चाहता हूँ
हर सांस जहां से आ रही, उस धरती में बो जाना चाहता हूँ
ताकि निकलूं फिर खिल के, पत्तों में और फूलों में
बंध जाऊं और लहराऊँ, फिर सावन के झूलों में
विचारों से परे हो जाऊं, मैं कहीं खो जाऊं
किसी वृक्ष की ओट में, मैं कहीं सो जाऊं
उड़ जाऊं ब्रह्माण्ड में, दूरी वो तय कर जाऊं
युगों युगों को प्रेरित करे, वो कहानी मैं बन जाऊं
पुनीत वर्मा, मिशन ग्रीन दिल्ली