Vriksh Ki Abhilasha

Vriksh Ki Abhilasha

नहीं चाहता बंगलों के बागीचे में रोपा जाऊं
नहीं चाहता झूला टँगने पर इठलाऊँ
मुझ पर पाखी नीड बनाएं हृदय हिलोर इठलाऊँ
नहीं चाहता अंग भंग कर कुर्सी मेज बन जाऊं
कट कर तख्ती बनूं बालक की
लेखन अध्यापन के कुछ काम तो आऊं
छाल को घिस घिस लेप लगा लो
औषधि बन तन से लिपटा लो

बच्चे खेलें पथिक ऊंघ लें
चींटी दीमक की बाँबी को रहा समेटे
गिलहरी का कोटर जो मुझमें सजता
गौरैय्या का घोसला बहुत है फबता
तन से मन से हर्षित होकर सब घाव मैं सहता जाऊं
सुंदर सुघड़ सलोने बागीचे की नहीं तनिक अभिलाषा
यहाँ वहाँ से कट छंट कर बंगलों की शोभा नहीं बढाऊँ
छप्पर फूस कुआं बावड़ी इनके सिरहाने इठलाऊँ
पाइप का पानी नहीं मुझको देना तुम
नदी तालाब धरती की कोख से
नित मैं प्यास बुझाऊँ
पोखर ताल तलैय्या संग खेलूं झूमुं गाउँ

हरा भरा छाया नित करता
सूखे तृण से नीड़ को भरता
पुष्प लता सब सुंदर सोहें
गिलहरी की उछल कूद मेरा मन मोहे

छू गुजरे जो पवन का झोंका
कर देता उसको मैं सुरभित
भंवरा गुंजन पंछी का कलरव
चर्चा मुझसे करते नियमित
सूरज की किरणों को पी कर
चंदा की ठंडक को ओढ़े
दिन रात का चक्र गुजरते देखूँ
दादुर कूदे मोर भी ठुमके
तारे ओढ़ नित्य मैं सोऊँ

चला चली की बेला जब आए
ठूंठ बनूं गिद्ध इठलाए
गिर जाऊंगा अगले अंधड़ में फिर
काम आएगा तन सूखा बहुविध
जलेगा चूल्हा जलेगा तन भी
काष्ठ अग्नि से मिल जब भभके
राख राख से पंचतत्व को पकड़े
मिल जाऊंगा धरा में फिर से
उठ आने को पुनः जगूंगा
यही मेरी नन्हीं अभिलाषा

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