अकेला कहां

अकेला कहां
अस्तित्व संग हूँ
अपनी ही खुशबू में
स्वयं संलग्न हूँ

अब तक जो था सो था
जड़ों से था जुड़ा
हुई इक उम्र पूरी
धरा पे जा पड़ा

बिखरा हुआ बस जानो
घड़ी में जा उडूँ
प्रस्थान पूर्व उऋण हो
समष्टि से जुडूँ

इक काल खण्ड गुजरा
मुझ में सिमट गया
विस्तार प्राण मेरे
उद्भव में रम गया

खण्डित हो देह मेरी
अब सूख रहे प्राण
ले लो ये रंग बू सब
उपलब्ध हो निर्वाण

हरे भरे वर्ष वृक्ष से

इक इक दिन यूँ टूटा
सूरज हवाएं मिट्टी
सब यहीं पर छूटा
वर्षान्त सांझ की सूर्य किरण
अस्तित्व भेद मुखरित रंजित
कल नव कोपल संग नव-वर्ष वृक्ष
आंगन छाए नव सृजन मित्र
मंगल हो यह नव वर्ष हरित
सुरभित आनंदित आलोकित

दीप उगाएं आंखों में

मलिन कलुष अंतस अंधियारा
देहरी पर था दीप उजारा

हृदय वेदन मर्म चीत्कार
क्रन्दन करती किसे पुकार

मल का विचलित क्षुद्र विकार
तेजोमय द्वि-दीप संहार

नेत्रों से बह निकली धार
वीणा वन्दन झंकृत सितार

अंगुरि पोर देह बंसी बरसे अमृत
बजती लय सुध बुध थी विस्मृत

चौक पुराओ द्वार लिपाओ
घूरे के भी दिन फिर जाओ

जलते जाओ नयन भर आस
उषा आगमन प्रतीक्षा श्वास

सौंप लपट तुम देना रवि को
अंजुरी भर परंपरा की धरोहर

बुझते बुझते दे गया संदेश
भभका निर्वाण पूर्व प्रवेश

जितनी ज्वाला बच रहती थी
सब सँग समेट तुम्हें है सौंपी

जग भर उजियारा फैलाना
कोई दीप पुनः उगाना

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