कच्चे धागों से बांधे जो
रिश्ते बहुत ही नाज़ुक थे
गांठ मार कर हाथ छिले
धागों में सलवट पटी पड़ीं
गिरहें हैं कि खुलती ही नहीं
चटक रहीं रह रह कर
क्या सूत की फितरत है ऐसी
फिर बांधी डोर जो रेशम की
मखमली गुदगुदी सुरमई सी
फिसल फिसल जाए जब तब
कभी इस लिए कभी उस लिए
क्या ऐसी डोर भी होती है
चटके न जो घड़ी घड़ी
तुनक जरा सी टूटे वो फिर खड़ी पड़ी
गांठों का क्या पड़ जाएंगी
उम्रों की हों या नातों की
गिरह समझ बांध ले अब
यादों की हों या रिश्तों की
??? भूपेष खत्री