दिल्ली का चेहरा बदलेगा

कल दिल्ली में नयी सरकार बन जाएगी। अरविन्द केजरीवाल मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। और उनका पहला काम होगा दिल्ली सरकार के उन् सूखे पत्तों को अलग करना जो करप्शन की धूप में पीले होते जा रहे हैं। सरकारी विभागों में से जब तक ये पीले पत्ते झाड़कर नीचे नहीं गिरा दिए जाते, तब तक दिल्ली रुपी पीपल का ये वृक्ष हरा भरा नहीं हो पाएगा।

जिस प्रकार किसान अपनी फसल की जानवरों से रक्षा करता है, उसी प्रकार आम आदमी सरकार का अगला काम होगा दिल्ली की जमीन पर महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को आवारा पशुओं से सुरक्षित रखना। जो हक़ गरीबों से छीन कर किसी और को दे दिया गया है वो उनको वापस करना।

आज हर दिल्ली वासी चाहता है की कोई भी नागरिक बेरोजगारी का शिकार ना हो, बिमारी का शिकार ना हो और हर किसी को सम्पूर्ण शिक्षा मिले। और ये तभी संभव है जब शहर में हर व्यक्ति अपने मनचाहे कार्य का अध्यन करना शुरू करेगा और उसका जिक्र अपने आस पास के लोगों से करेगा। इस प्रकार सीखने की चाहत बढ़ेगी और जब ऐसा होगा तो अपने आप ही रोजगार के मौके मिलने शुरू हो जाएंगे।

धीरे धीरे दिल्ली की जनता को ये एहसास होने लगेगा की वाहनो के बिना भी जीवन मज़े से जिया जा सकता है। वाहन रहित और प्रदूषण रहित दिली कितनी सुन्दर और आँखों को सुख प्रदान करने वाली होगी। कैसे वृक्षों से भरी दिल्ली में पंछी पराए देश को छोड़कर अपने देश में वापस आ जाएंगे। बस इंतज़ार है अहंकार और लालच के इस माया जाल से बाहर निकलने का।

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माँ होती तो क्या होता

रहता हूँ मैं , अपनों में बेगाना बनकर
रोता हूँ मैं, सपनो में रोजाना जमकर
जलती इस धूप में, छाँव होती तो क्या होता
नकली इस भेस में, जीवन की इस रेस में
इस बेगाने देश में, माँ होती तो क्या होता

प्यासा हूँ मैं, नदियों के इस देश में
डूब रहा हूँ आज, मन के इस द्वेष में
यहां मीठे पानी की, बां होती तो क्या होता
नकली इस भेस में, जीवन की इस रेस में
इस बेगाने देश में, माँ होती तो क्या होता

खुली इस पवन में, मन ये घुटता है
झूठी इस चाह मैं, दिन ये लूटता है
गाँव की उस झील की, नाव होती तो क्या होता
नकली इस भेस में, जीवन की इस रेस में
इस बेगाने देश में, माँ होती तो क्या होता

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दीदार बस इक शज़र का, बाकी रह गया

सब्ज़ इ मुहीम के जाम में , ये साकी बह गया
कोई ख़्वाब था मन में मेरे, जो बाकी रह गया
छा गए आसमा में जबसे, उल्फत के बादल
दीदार बस इक शज़र का, बाकी रह गया

दिल्ली की जमीन को, रुस्वा मत करना कभी
बिगाड़ रहे इस जन्नत को, मत उनसे डरना कभी
रूमानी हो मौसम इसका, रिवाज वो कायम करना
निकले बस सोना इससे, इस मिट्टी को मुलायम करना

अल्फ़ाज़ों में ग्रीन टेक हो, जिगर में ग्रीन टेक हो
मोटी उन हसीनाओं की, फिगर में ग्रीन टेक हो
फुरकत हो इस चर्बी से, शुगर में ग्रीन टेक हो
शब इ बिमारी रुक्सत हो, शहर में ग्रीन टेक हो

वर्मा की कलम को, शर्म सार मत करना तुम
परवाज़ मिशन ग्रीन की, कैच अभी बस करना तुम
ख्वाब शब ए कुदरत का, बाकी बस रह गया
दीदार बस इक शज़र का, बाकी बस रह गया

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