जिन पेडो को सींचा था, उन्ही पर लाश लटकी थी

मेरे जख्मो की पीडा को, मै ही जान सकता हूँ।
मेरे अपनो पे क्या बीती,मै ये पहचान सकता हूँ।
हजारो लोग है खुदको , बडा हमदर्द कहते है।
हमारा दर्द जो समझे मसीहा मान सकता हूँ।।

उन्होने कर्ज लेकर के ,धरा पर बीज बोया था।
लहू से कर दिया सिंचित, वो रातो को न सोया था।
उस धरती पुत्र की मेहनत, अब सोने सी लहराई।
मिली जब रक्म हाथो मे, तो दिल जोरो से रोया था।।

बहुत थे स्वप्न आखो मे, बहुत सी आस दिल मे थी।
छुडाउंगा जमी अपनी, ये चाहत खास दिल मे थी।
मगर किस्मत तो देखो तुम, हमारे अन्नदाता की।
जिन पेडो को सींचा था, उन्ही पर लाश लटकी थी।

यही हालात तब भी थे, यही हालात अब है।
बहुत लाचार तब भी थे, बहुत लाचार अब भी है।
कृषक के नाम पर इस देश मे, बस योजना बनती।
कोई सरकार तब भी थी, कोई सरकार अब भी है ।।

– गिरीश चन्द्र शर्मा “प्रवासी”

गिरीश शर्मा कि कलम से

बच्चों को मिले ममता , बूढ़ों को हासिल हो प्यार
यही सोच कर एक दिन खुदा ने , इन्सान को किया तैयार।
माता को दिल मिला कोमल , और पिता बने बलवान
सद्बुद्धि ,सदमार्ग प्रशस्थ हो , यह बोल गये भगवान।
प्रेम भाव हो जनमानस में , कभी नए ना उपजै बैर
कभी कमी न हो अन्न वस्त्र की , तो धनरचना कर गये कुबेर।

पर अब न ममता माँ के आँचल , न पिता हृदय में प्यार
धन से ही है जीवनसाथी , धन से ही है रिश्तेदार।
धन की खातिर जीता और धन की खातिर मरा इन्सान
धन आते ही सोच रहा , मैंने ही रच दिया भगवान।

मैंने मन्दिर बना दिया है , मैंने मुकुट दिया है दान
सोने की तौली है मूरत , तो अब मेरा ही है भगवान
जिस नीयत से आया था , वो पीछे छोड़ गया इन्सान
धन आते ही सोच रहा , मैंने ही रच दिया भगवान।

गिरीश चन्द्र शर्मा ”प्रवासी ”

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