आज हृदय क्यूं विदीर्ण हुआ – भूपेश खत्री जी की कलम से

bhupesh khatri

आज हृदय क्यूं विदीर्ण हुआ
कुछ खचक सा महसूस हुआ
जाया लाल किसी माँ का वो
रक्त सिक्त देह थी जो
निर्लज्ज सभ्यता ताका करे
निर्मोही बन कर झांका करे
दो हाथ बढ़ाएं आतुर हों जो
ऐसे जीव समर्थ जो हों
लिपट रहा तन उस रूह को
जाने को आतुर क्षण में जो
कुछ हाथ मिले कुछ साथ मिले
जीवित हो मृत को श्वास मिले
चुटकी भर मनुष्यता शेष अभी
कंपित मत हो कलयुग में सखी

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मारीच मोचन

story maricha

कञ्चन म्रग की मारीचिका
स्वर्ण देह वैभव आपूरित
हुई भ्रमित वनचारिणी भूमिजा
संवरण च्युत लोभ ऊपजा
विस्फारित नेत्र आभा से पूरित
अंतः चक्षु पट परा आवरण
निमित्त बन गया वही अपहरण
छाला मृग कछु हाथ न आई
स्वर्णमयी वैदेही गवाई
शूल अग्र मृग देह धूसरित
मायापति सँग खेल अचंभित
हे राम क्रन्द उच्चरित सुख सों
क्रन्दन वन्दन उद्भासित मुख सों
भेदित हृदय रक्तसिक्त देह
दोउ हस्त जोर अनुनय विनय
जा पार लगा वैतरणी क्षण में
मायापति स्वयम अरण्य में

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