पल पल यूँ ही चलता रहता, क्या कहूँ अब क्या है जीवन

हाथ से अपने फिसल रहा जो, समय को अब मैं जकड रहा हूँ
पल पल मुघसे दूर हो रहा, मन को अपने पकड़ रहा हूँ
देख के खिलते फूलों को, भटक रहा है अपना तनमन
पल पल यूँ ही चलता रहता, क्या कहूँ अब क्या है जीवन

इंतज़ार मैं तारों का, देखो हर इक रात कर रहा
मन को अपने साथ बिठाकर, खुद से थोड़ी बात कर रहा
ज्ञान भरी इस नदिया में, हो रहा ये तन मन पावन
पल पल यूँ ही चलता रहता, क्या कहूँ अब क्या है जीवन

कष्ट भरी इस नगरी में, तेरी नजरें मुघे फंसाए
पाप पुण्य की नगरी में, क्यों वापस मुझको तू बुलाए
ग्रीन टेक की कविता पड़कर, आ गया है फिर से सावन
पल पल यूँ ही चलता रहता, क्या कहूँ अब क्या है जीवन

What are you looking for ?

    ×
    Connect with Us

      ×
      Subscribe

        ×

        Exit mobile version