दीदार बस इक शज़र का, बाकी रह गया

सब्ज़ इ मुहीम के जाम में , ये साकी बह गया
कोई ख़्वाब था मन में मेरे, जो बाकी रह गया
छा गए आसमा में जबसे, उल्फत के बादल
दीदार बस इक शज़र का, बाकी रह गया

दिल्ली की जमीन को, रुस्वा मत करना कभी
बिगाड़ रहे इस जन्नत को, मत उनसे डरना कभी
रूमानी हो मौसम इसका, रिवाज वो कायम करना
निकले बस सोना इससे, इस मिट्टी को मुलायम करना

अल्फ़ाज़ों में ग्रीन टेक हो, जिगर में ग्रीन टेक हो
मोटी उन हसीनाओं की, फिगर में ग्रीन टेक हो
फुरकत हो इस चर्बी से, शुगर में ग्रीन टेक हो
शब इ बिमारी रुक्सत हो, शहर में ग्रीन टेक हो

वर्मा की कलम को, शर्म सार मत करना तुम
परवाज़ मिशन ग्रीन की, कैच अभी बस करना तुम
ख्वाब शब ए कुदरत का, बाकी बस रह गया
दीदार बस इक शज़र का, बाकी बस रह गया

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