जनपथ पे चलते हुए एक अजीब सी महक महसूस करता हूँ जो अपने देश की खुशबू जैसी लगती है. फिर जैसे ही चलता रहता हूँ तो देखता हूँ की कुछ भारतीय महिलाएं हाथों से बुनी हुए वस्त्र बेचने के लिए बैठी हैं. क्या कभी हमने उस उमुल्य बुनाई की सही कीमत समझी है ? देखता हूँ पहारों से आए उन् दूकानदारों को जो विदेशी लोगों को भारतीय वस्तुओं की कीमत समझा रहे हैं. क्या हमे जरूरत है दूसरों को अपनी कीमत समझाने की ? या क्या हमे जरूरत है अपनी भारतीय कला और तकनोलोजी की कीमत समझने की ? जिस देश ने पूरी दुनिया को वस्त्र बना बना कर दिया और जिस देश ने दुनिया को बसिक विज्ञान दिया …. क्या उस देश के लोगों को किसी विदेशी को यह समझाने की जरूरत है ? समझाने का काम तो तब किया जाता है जब कला में क्वालिटी ना हो. यह सारी कला हमारी हजारों वर्षों की तपस्या का नतीजा है और हमे किसी बाहर के व्यक्ति को यह साबित करने की जरूरत नहीं है . हम बेस्ट थे और हमेशा पूरे विश्व में बेस्ट रहेंगे. बस जरूरत है तो अपने रास्त्र के अध्यातिमिक ज्ञान को किताबों के जरिए खोजने की.जरूरत है हमारे महापुरुषों द्वारा दिए गए ज्ञान को समझने की और उसे बांटने की. जरूरत है अपनी आँखें खोलने की और सच को देखने और समझने की. हम किसी को भले ही समझा नहीं पाएं लेकिन एक काम कर सकते हैं … हम उसे समझने की कोशिश कर सकते है ताकि वो अपने अन्दर छिपी हुई भारतीयता को टटोल सके और अपने आप को जागरूक कर सके. इस तरह अध्यात्म सजता है और हमारे द्वारा दिया ज्ञान और कला पूरी दुनिया के लोगों तक पहुंचता है.