अगर इन्द्र तुम हो, तो शीतल कर दो

Rain

जून की गर्मी से तरसती दिल्ली आज देवताओं के राजा इंद्र से निवेदन कर रही है।

“अगर इन्द्र तुम हो, तो शीतल कर दो । सूर्य को बोल कर, कुछ हल कर दो । रोक दो ब्रह्मांड को कुछ पल, कांप रहा गर्मी से समतल । घटा को बोलकर, जल देव को प्रबल कर दो । अगर इन्द्र तुम हो, तो शीतल कर दो  ? ”

अब प्राकर्तिक वृक्ष लगाने से जरुरी हो गया है ग्रीन टेक का वृक्ष लगाना जो मन और बुद्धि में लगाया जाता है।

“एक दिव्य वृक्ष है, जो दिव्य बीज गिराता है । वो बीज अद्श्य रहकर भी, इक्क वृक्ष अन्य लगाता है । बुद्धि को वो शीतल करता, फिर मन तक वो बढ़ जाता है । इक दिव्य वृक्ष है, जो दिव्य बीज गिराता है । ”

आज ऐसा लग रहा है मानो वृक्ष भी हमसे रूठ गया है इंसान तो दूर की बात है।

“क्या बदलाव के लिए मैं अकेला ही काफी हूँ ? ऐ शीतल वृक्ष, क्या तू भी कुछ नही करेगा । एक एक बीज के सहारे, क्या तू भी नही बढेगा । गर तू भी रूठ गया हो तो, मांग रहा अब माफी हूं । क्या बदलाव के लिए, मैं अकेला ही काफी हूँ ? “

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छोड़ के मुझको यहां अकेला, कहाँ अचानक चली गयी

maa

रहती थी वो साथ में मेरे, जाने वो किस गली गयी
जीवन की इस बगिया में, क्यों छोड़ के मुझको चली गयी
इक माँ थी जो सब मानती थी, इक माँ थी जो सब जानती थी
छोड़ के मुझको यहां अकेला, कहाँ अचानक चली गयी

माँ की मुझको याद सताए, ना वो अपने पास बुलाये
बहुत रो रहा मन ये मेरा, ना वो अपनी गोद सुलाए
कहीं दिखाई अब ना देती, धुप अचानक चली गयी
इक माँ थी जो सब मानती थी, इक माँ थी जो सब जानती थी
छोड़ के मुझको यहां अकेला, कहाँ अचानक चली गयी

वो कहती थी तुम नाम करोगे, सबका तुम ही ध्यान रखोगे
जो खुशियां हर पल सबको बांटे, ऐसा तुम ही ज्ञान रखोगे
मुझको सारी खुशियां देकर, ममता देकर चली गयी
इक माँ थी जो सब मानती थी, इक माँ थी जो सब जानती थी
छोड़ के मुझको यहां अकेला, कहाँ अचानक चली गयी

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