In Darakhton Ko Kaat Kar | Mrigya Mukaam Poetry

green poetry

Very beautiful poem by Mrigya Mukaam ji on chopping of life giving trees of Delhi

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अकेला कहां

akela kahaan

अकेला कहां
अस्तित्व संग हूँ
अपनी ही खुशबू में
स्वयं संलग्न हूँ

अब तक जो था सो था
जड़ों से था जुड़ा
हुई इक उम्र पूरी
धरा पे जा पड़ा

बिखरा हुआ बस जानो
घड़ी में जा उडूँ
प्रस्थान पूर्व उऋण हो
समष्टि से जुडूँ

इक काल खण्ड गुजरा
मुझ में सिमट गया
विस्तार प्राण मेरे
उद्भव में रम गया

खण्डित हो देह मेरी
अब सूख रहे प्राण
ले लो ये रंग बू सब
उपलब्ध हो निर्वाण

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हरे भरे वर्ष वृक्ष से

hare bhare vriksh se

इक इक दिन यूँ टूटा
सूरज हवाएं मिट्टी
सब यहीं पर छूटा
वर्षान्त सांझ की सूर्य किरण
अस्तित्व भेद मुखरित रंजित
कल नव कोपल संग नव-वर्ष वृक्ष
आंगन छाए नव सृजन मित्र
मंगल हो यह नव वर्ष हरित
सुरभित आनंदित आलोकित

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