बिखेर दूंगा लाली मैं जाते जाते
बीज से उपजी थी तरुणाई आते आते
हर हाल में वो हाल पूछ लेते हैं आते जाते
बुढ़े बरगद के पत्ते भी हैं हवा से सरसराते
छूट गया साथ वक़्त के दामन को थाम जाते
रंग हथेलियों पे भी हैं कुछ तो छूट जाते
रेशमी डोरियों को यूं ही नहीं दांत से काट पाते
कुछ कट गया कुछ कट जाएगा रोते गाते
सपनों की सांकलों को ऐसे नहीं खड़खड़ाते
रूबरू हो अगर तपाक से गले से तो लगाते
मेरे तो छोड़ अपने कुछ ग़म तो बांट जाते
सन्दल का लेप गुलों से छीन कर चेहरों पे हैं लगाते
लहू क्या तैर गया जीभ पर जो हो लपलपाते
सावन क्या हर दिन बरसेगा जो भीग जाते
रहबरों की न थी किस्मत हम सी
मिला न कुछ यां पर जो लूट जाते
रह रह कर कैसे कैसे गीत तुम रहे गुनगुनाते
चश्म हो रही तर अफसाना सुनते सुनाते
पसर कर बेबसी के कांटे यूं जीभ लपलपाते
रात बहुत हो चली ओढ़ लूँ ज़िंदगी सोते साते
मंज़र की कशिश किस कदर हो चली दिलचस्प
स्याह आसमानों पर मुट्ठी भर कहकशां बिखेर जाते
सहरा की रेत को खुद प्यास नहीं लगती
पीने पे उतर आएं तो समंदर को भी पी जाते
अरुणाई की तरुणाई ग़र्क होने को है चली
बिखेर दी सब लाली इस बार जाते जाते
Bikher Doonga Mein Laali Jaate Jaate
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