जोड़े जो धागे गांठ बने

relation

कच्चे धागों से बांधे जो
रिश्ते बहुत ही नाज़ुक थे
गांठ मार कर हाथ छिले
धागों में सलवट पटी पड़ीं
गिरहें हैं कि खुलती ही नहीं
चटक रहीं रह रह कर
क्या सूत की फितरत है ऐसी

फिर बांधी डोर जो रेशम की
मखमली गुदगुदी सुरमई सी
फिसल फिसल जाए जब तब
कभी इस लिए कभी उस लिए
क्या ऐसी डोर भी होती है
चटके न जो घड़ी घड़ी
तुनक जरा सी टूटे वो फिर खड़ी पड़ी

गांठों का क्या पड़ जाएंगी
उम्रों की हों या नातों की
गिरह समझ बांध ले अब
यादों की हों या रिश्तों की

??? भूपेष खत्री

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खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं

wind tree

कब होगी बारिश जो बता दे, ऐसा हम इक टूल बनाएं
खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं
धुंआ उगलती कारों को, ऊपर चढ़ती दीवारों को
हम रोक सकें तो रोक लें, इन धरा की दरारों को
हो सके तो पेड़ लगाएं, आसपास हम फूल उगाएं
खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं

काहे ये पहाड़ गिर रहे, देखो नदियाँ सूख रही हैं
सदियों से जो प्यास बुझाए, काहे हमसे रूठ रही हैं
बढ़ते तापमान को रोके, ऐसा कोई रूल बनाएं
हो सके तो पेड़ लगाएं, आसपास हम फूल उगाएं
खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं

मिशन ग्रीन हो जीवन में, ऐसा हम कानून बनाएं
ग्रीन ड्रीम का डोज़ चखें सब, ऐसा कोई स्पून बनाएं
हो सके तो पेड़ लगाएं, आसपास हम फूल उगाएं
खेतों में हरियाली आए, जीवन को हम मूल बनाएं

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जिन पेडो को सींचा था, उन्ही पर लाश लटकी थी

farmer

मेरे जख्मो की पीडा को, मै ही जान सकता हूँ।
मेरे अपनो पे क्या बीती,मै ये पहचान सकता हूँ।
हजारो लोग है खुदको , बडा हमदर्द कहते है।
हमारा दर्द जो समझे मसीहा मान सकता हूँ।।

उन्होने कर्ज लेकर के ,धरा पर बीज बोया था।
लहू से कर दिया सिंचित, वो रातो को न सोया था।
उस धरती पुत्र की मेहनत, अब सोने सी लहराई।
मिली जब रक्म हाथो मे, तो दिल जोरो से रोया था।।

बहुत थे स्वप्न आखो मे, बहुत सी आस दिल मे थी।
छुडाउंगा जमी अपनी, ये चाहत खास दिल मे थी।
मगर किस्मत तो देखो तुम, हमारे अन्नदाता की।
जिन पेडो को सींचा था, उन्ही पर लाश लटकी थी।

यही हालात तब भी थे, यही हालात अब है।
बहुत लाचार तब भी थे, बहुत लाचार अब भी है।
कृषक के नाम पर इस देश मे, बस योजना बनती।
कोई सरकार तब भी थी, कोई सरकार अब भी है ।।

– गिरीश चन्द्र शर्मा “प्रवासी”

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