न बीत रही वीथि

bhupesh khatri ji poet

न बीत रही वीथि
पदचाप सोचती थी
छूट जो रही थी
सुनसान वो गली थी

अहसास भर रही थी
हर श्वास कह रही थी
निःश्वास मैं चली थी
विश्वास कर भली थी

रंगों को पी चुकी थी
स्वप्नों को जी सकी थी
पदचिन्ह कहीं न छूटें
हवाएं यूँ चली थीं

धुली सी ज़िन्दगी थी
मचली बहुत कभी थी
पहुंची जो एक मोड़ पर
ठिठकी वहीं खड़ी थी

लिपे लिपे से आँचल
विभोर थे अंतस्थल
गंभीर था मंदराचल
उगला भी था हलाहल

खट मिट्ठे नमकीन कुछ थे
तो थे कुछ कसैले
माधुर्य उमड़ जो आया
वहीं लबों से उलझे

यादों का क्या करूं मैं
बातों का क्या करूं मैं
भर भर उलीच दूं तो
निर्भार हो चलूं मैं

थकन अभी है आई
चपल को दी विदाई
सजने को कुछ न था शेष
यह शाम कैसी आई

चुपचाप ओढ़ ले अब
ठंडी हवा जो आई
चलता चला जो आया
वीथि का मोड़ आया

सब छोड़ पीछे आया
पदचाप संग लाया
विस्मृत सब कर आया

निर्भार उड़ चला अब
है पंख अब फैलाया

पवन में गूंध दीं सब
खुशबू यहां जो पाई
उड़ेंगी दिग दिगन्त जब
संचार मैं करूँगा

उन्मुक्त मैं उडूँगा
भरूँगा नेत्र में जब
महसूस मुझ को करना
रंगों में जा छुपुंगा

खुशबू में ढूंढ लेना
खुशबू में ढूंढ …….

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पौधा लेकर हाथों में, चले हैं हम तो पेड़ उगाने

पौधा लेकर हाथों में, चले हैं हम तो पेड़ उगाने

निकल पड़े हम, मिशन ग्रीन पर
शहर को अपने, ग्रीन बनाने
पौधा लेकर हाथों में, चले हैं हम तो पेड़ उगाने

ग्रीन चैलेंज जो, लिया है हमने
नही उसे हम, देंगे थमने
पॉल्युशन के बादल को, चलें हैं हम तो आज हराने
पौधा लेकर हाथों में, चले हैं हम तो पेड़ उगाने

वर्षा की ये बूंदे बोलें, आओ सब दरवाजे खोलें
कंक्रीट की सड़कों पर, एक वृक्ष तो हम भी बो लें
दिल्ली वाले भाग रहे हैं, सुबह सुबह अब शहर बचाने
पौधा लेकर हाथों में, चले हैं हम तो पेड़ उगाने

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अकेला कहां

akela kahaan

अकेला कहां
अस्तित्व संग हूँ
अपनी ही खुशबू में
स्वयं संलग्न हूँ

अब तक जो था सो था
जड़ों से था जुड़ा
हुई इक उम्र पूरी
धरा पे जा पड़ा

बिखरा हुआ बस जानो
घड़ी में जा उडूँ
प्रस्थान पूर्व उऋण हो
समष्टि से जुडूँ

इक काल खण्ड गुजरा
मुझ में सिमट गया
विस्तार प्राण मेरे
उद्भव में रम गया

खण्डित हो देह मेरी
अब सूख रहे प्राण
ले लो ये रंग बू सब
उपलब्ध हो निर्वाण

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