न बीत रही वीथि
पदचाप सोचती थी
छूट जो रही थी
सुनसान वो गली थी
अहसास भर रही थी
हर श्वास कह रही थी
निःश्वास मैं चली थी
विश्वास कर भली थी
रंगों को पी चुकी थी
स्वप्नों को जी सकी थी
पदचिन्ह कहीं न छूटें
हवाएं यूँ चली थीं
धुली सी ज़िन्दगी थी
मचली बहुत कभी थी
पहुंची जो एक मोड़ पर
ठिठकी वहीं खड़ी थी
लिपे लिपे से आँचल
विभोर थे अंतस्थल
गंभीर था मंदराचल
उगला भी था हलाहल
खट मिट्ठे नमकीन कुछ थे
तो थे कुछ कसैले
माधुर्य उमड़ जो आया
वहीं लबों से उलझे
यादों का क्या करूं मैं
बातों का क्या करूं मैं
भर भर उलीच दूं तो
निर्भार हो चलूं मैं
थकन अभी है आई
चपल को दी विदाई
सजने को कुछ न था शेष
यह शाम कैसी आई
चुपचाप ओढ़ ले अब
ठंडी हवा जो आई
चलता चला जो आया
वीथि का मोड़ आया
सब छोड़ पीछे आया
पदचाप संग लाया
विस्मृत सब कर आया
निर्भार उड़ चला अब
है पंख अब फैलाया
पवन में गूंध दीं सब
खुशबू यहां जो पाई
उड़ेंगी दिग दिगन्त जब
संचार मैं करूँगा
उन्मुक्त मैं उडूँगा
भरूँगा नेत्र में जब
महसूस मुझ को करना
रंगों में जा छुपुंगा
खुशबू में ढूंढ लेना
खुशबू में ढूंढ …….