मलिन कलुष अंतस अंधियारा
देहरी पर था दीप उजारा
हृदय वेदन मर्म चीत्कार
क्रन्दन करती किसे पुकार
मल का विचलित क्षुद्र विकार
तेजोमय द्वि-दीप संहार
नेत्रों से बह निकली धार
वीणा वन्दन झंकृत सितार
अंगुरि पोर देह बंसी बरसे अमृत
बजती लय सुध बुध थी विस्मृत
चौक पुराओ द्वार लिपाओ
घूरे के भी दिन फिर जाओ
जलते जाओ नयन भर आस
उषा आगमन प्रतीक्षा श्वास
सौंप लपट तुम देना रवि को
अंजुरी भर परंपरा की धरोहर
बुझते बुझते दे गया संदेश
भभका निर्वाण पूर्व प्रवेश
जितनी ज्वाला बच रहती थी
सब सँग समेट तुम्हें है सौंपी
जग भर उजियारा फैलाना
कोई दीप पुनः उगाना