Dev Ujala Bharte Nabh Mein

Dev Ujala Bharte Nabh Mein

देव उजाला भरते नभ में
तारागण की चितवन चकित
पवन सुगंधित सौरभ विस्मित
जल जीवन जलधि हो अमृत
औषध हरित पुलकित सुरभित
खगकुल फैल गगन में उलसित
पुष्पों से हो श्वास परिपूरित
वृक्ष फलों से झूमें हो गर्भित
बाल वृन्द की किलकारी पुलकित
हो नववर्ष की भोर विलसित
आमोद हो प्रमोद हो स्वास्थ्य हो
रहे वसुधा रंग तरंगित परिपूरित

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जाते जाते बता दिया है, रवि ने दीपक जला दिया है

जाते जाते बता दिया है, रवि ने दीपक जला दिया है

जड़ हुआ चेतन था अब तक
कितने सावन ऋतु वर्षा की
सिक्त हुए पत्रदल वर्षों
महका आँचल द्वार आंगन वीथि
घोला मधुरस अगणित कण्ठों में
खग के नीड़ बने बसेरे

बालपन अल्हड़ यौवन सब मुझ पर सोहे
खगकुल के संदेसे महके
झूमें डाली पत मतवाली
हर्षित उलसित मंद खुमारी
आए वसन्त फूले पुष्प गन्ध
बालाएं चपल मिल झूला झूलें

हौले हौले क्षीण हुआ सब
पत्तों ने भी किया त्याग तब
बनमाली ने नजर फिरा ली
होनी थी जो होती हो गई

श्रृंगार तजे पुष्प सब खण्डित
रंगत धूमिल छाल गवाई
धसी हुई जड़ें सब सूखीं
काया कृश रीत गई आंखें

पड़ा हुआ हूँ खड़ा हुआ हूँ
देह को मेरी अग्नि प्रतीक्षा
जले जब ज्वाला दावानल में
जाते जाते मृत्यु प्रतीक्षा

सहसा अबोध बीज आ धमका
बना मुझे अवलंब अधारा
टूटा जड़ चेतन में उभरा
बुझती हुई आंखों ने देखा

अंक की सिहरन महसूस करे यूँ
खिलखिलाहट हरे पत्तों की
शीश उठा संलग्न हुआ चेतन से
जाते जाते बता दिया है
रवि ने दीपक जला दिया है
रवि ने दीपक जला…….

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न बीत रही वीथि

bhupesh khatri ji poet

न बीत रही वीथि
पदचाप सोचती थी
छूट जो रही थी
सुनसान वो गली थी

अहसास भर रही थी
हर श्वास कह रही थी
निःश्वास मैं चली थी
विश्वास कर भली थी

रंगों को पी चुकी थी
स्वप्नों को जी सकी थी
पदचिन्ह कहीं न छूटें
हवाएं यूँ चली थीं

धुली सी ज़िन्दगी थी
मचली बहुत कभी थी
पहुंची जो एक मोड़ पर
ठिठकी वहीं खड़ी थी

लिपे लिपे से आँचल
विभोर थे अंतस्थल
गंभीर था मंदराचल
उगला भी था हलाहल

खट मिट्ठे नमकीन कुछ थे
तो थे कुछ कसैले
माधुर्य उमड़ जो आया
वहीं लबों से उलझे

यादों का क्या करूं मैं
बातों का क्या करूं मैं
भर भर उलीच दूं तो
निर्भार हो चलूं मैं

थकन अभी है आई
चपल को दी विदाई
सजने को कुछ न था शेष
यह शाम कैसी आई

चुपचाप ओढ़ ले अब
ठंडी हवा जो आई
चलता चला जो आया
वीथि का मोड़ आया

सब छोड़ पीछे आया
पदचाप संग लाया
विस्मृत सब कर आया

निर्भार उड़ चला अब
है पंख अब फैलाया

पवन में गूंध दीं सब
खुशबू यहां जो पाई
उड़ेंगी दिग दिगन्त जब
संचार मैं करूँगा

उन्मुक्त मैं उडूँगा
भरूँगा नेत्र में जब
महसूस मुझ को करना
रंगों में जा छुपुंगा

खुशबू में ढूंढ लेना
खुशबू में ढूंढ …….

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